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कविता

काशी का जुलहा

त्रिलोचन


ब्राह्मण को तुकारने वाला वह काशी का
           जुलहा जो अपने घर नित्य सूत तनता था
लोगों की नंगई ढाँकता था। आशी का
           उन्मूलन करता था जिसका विष बनता था
           जाति वर्ण अंहकार। कब्रें खनता था
                    मुल्लों मौलवियों की झूठी शान के लिए
           रूढ़ि और भेड़ियाधसान को वह हनता था
           शब्द बाण से। जीता था बस ज्ञान के लिए
           गिरे हुओं को खड़ा कर गया मान के लिए।
                    राम नाम का सुआ शून्य के महल में रहा,
           पंथ-पंथ को देखा सम्यक ध्यान के लिए
           गुरु की महिमा गाई, वचन विचार कर कहा।

साईं की दी चादर ज्यों की त्यों धर दीनी
इड़ा-पिंगला-सुखमन के तारों की बीनी।

 


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